Sunday, 4 October 2009

ओखली

ओ से ओखली
ओखली पड़ी है उपेक्षित
आँगन के एक कोने में
मूसल को अभी भी
इंतजार है
चूड़ियों के खनकने की
ओखली में झांक कर देखो
कितनी ही पीढ़ियों की धड़कनें
सुरक्षित हैं इसके अंदर
समय अपने विद्युत पैरों से
रौंद डालेगा सारी यादें
सपनों में सुनूंगा मैं
ओखली का संगीत
आसपास मंडराएगी पहचानी गंध
चमकेंगी इसमें चांदनी रातें
पसीने की बूँदें और खिलखिलाती हँसी

इससे पहले कि समय
मुझसे सब कुछ छीने
और मुझे विस्थापित कर दे
मैं ओखली में धान का कूटना
और चावल के दानों का छिटकना
देख लेना चाहता हूं।

Thursday, 16 April 2009

बर्फ़ तुम पिघलो

बादल का घिरना
जीवन में काले बादलों के घिरने जैसा ही नहीं है
उनका बर्फ़ बन कर गिरना भी है
बच्चों का गिरती बर्फ़ में उत्सव मनाना
और हँसी का लौट आना भी है
बर्फ, तुम गिरो

रात भर बर्फ का परत-दर-परत जमना
अंदर ही अंदर कुछ जम जाना
और जड़ हो जाना ही नहीं
सुबह होते ही
ताज़ा बर्फ पर
बच्चों का नंगे पाँव
उछल-कूद मचाना भी है
बर्फ, तुम जमो
किरण का कोमल स्पर्श
और स्लेट की छत से बर्फ़ का
टप-टप पिघल जाना
सब कुछ खो जाना ही नहीं
सूनी आँखों में
आँसुओं का लौट आना भी है
बर्फ, तुम पिघलो।

Monday, 24 November 2008

गांव के मंदिर प्रांगण में

गाँव के मंदिर प्राँगण में
यहां जीर्ण-शीर्ण होते देवालय के सामने
धूप और छाँव का
नृत्य होता रहता है

यहाँ स्लेट छत की झालर से लटके
लकड़ी के झुमके
इतिहास पृष्ठों की तरह
गुम हो गए है

दुपहर बाद की मीठी धूप को छेड़ता
ठण्डी हवा का कोई झोंका
कुछ बचे झुमकों को हिला कर
विस्मृत युग को जगा जाता है

धूप में चमकती है ऊँची कोठी
पहाड़ का विस्मृत युग
देवदार की कड़ियों की तरह
कटे पत्थर की तहों के नीचे
काला पड़ रहा है
बूढे बरगद की पंक्तियों सा
सड़ रहा है
बावड़ी के तल में

इस गुनगुनी धूप में
पुरानी कोठी की छाया कुछ हिलती है
और लम्बी तन कर सो जाती है